कराची: साल 2015 में चीन पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) की शुरुआत हुई थी। यह कॉरिडोर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के फेवरिट प्रोजेक्ट बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (BRI) का एक फ्लैगशिप प्रोजेक्ट था। इस प्रोजेक्ट का मकसद चीन को पाकिस्तान के रास्ते अरब सागर से जोड़ना था। चीन की तरफ से इस प्रोजेक्ट पर शुरुआत में 42 अरब डॉलर खर्च करने का वादा किया गया था। सबने सोचा था कि जिस तरह से चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था में चमत्कार किया है, वही जादू यह पाकिस्तान में भी दिखाएगा। मगर अब पाकिस्तान में ही इस पर सवाल उठने लगे हैं। देश के अर्थव्यवस्था विशेषज्ञों की मानें तो सीपीईसी से पाकिस्तान की किस्मत तो नहीं बदली लेकिन यह प्रोजेक्ट दोनों देशों के बीच एतिहासिक रिश्तों को परखने का जरिया जरूर बन गया। इस प्रोजेक्ट को चीन-पाकिस्तान की दोस्ती की पहचान बताया गया था। पहले चरण में अच्छे नतीजे फिर भी नुकसान सीपीईसी के पहले चरण में इंफ्रास्ट्रक्चर, ऊर्जा और बंदरगाह का विकास होना था। पहला चरण में इंफ्रास्ट्रक्चर को खंजराब से लेकर ग्वादर तक डेवलप किया गया। इन जगहों को आपस में सड़क के जरिए जोड़ा गया और इसके काफी अच्छे नतीजे देखने को मिले। साथ ही साथ एनर्जी प्रोजेक्ट्स को भी शुरू किया गया ताकि पाकिस्तान उत्पादन क्षमता को कई गुना तक बढ़ाया जा सके। इसके बावजूद पाकिस्तान कमजोर बना रहा। विशेषज्ञों की मानें तो चीन और पाकिस्तान दोनों देशों में अफसरशाही और राजनीतिक क्ष्मताओं में जमीन आसमान का अंतर था और इसकी वजह से मुल्क को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ।चीनी नागरिकों पर बढ़ा खतरा चीनी कंपनियां बड़े पैमाने पर आईं और पाकिस्तान में चीनी नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक स्पेशल सिक्योरिटी डिपार्टमेंट बनाया गया। असल योजना सीपीईसी को अफगानिस्तान और ईरान तक लेकर जाने की थी। पाकिस्तान के विशेषज्ञों का मानना है कि मध्य और दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग के कई नीतिगत रास्ते थे जिन्हें काफी मेहनत के साथ आगे बढ़ाया जाना था। लेकिन पाकिस्तान ने दूसरों की तुलना में आर्थिक सुरक्षा को प्राथमिकता दी। उसे लगा कि सीपीईसी के आसपास वह समृद्धि के एक नई दुनिया की तरफ है। जबकि ऐसा कुछ नहीं था। तालिबान के साथ खराब रिश्ते, हावी हुआ टीटीपी सीपीईसी का दूसरा चरण लॉन्च होता इससे पहले ही बड़ी समस्या पाकिस्तान के सामने आ गई। इस चरण में सात से नौ जोन में 33 स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाए गए थे। यहीं से सबकुछ बिगड़ता चला गया। अफगानिस्तान- काबुल के नियंत्रण वाले तालिबान के साथ पाकिस्तान के रिश्ते अचानक बिगड़ गए। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) जिसने अफगानिस्तान में शरण ली थी, फिर से सक्रिय हो गया और पाकिस्तान के खिलाफ आतंकी हमले करने लगा। पाकिस्तान के बलूचिस्तान में भी चीनी नागरिकों पर हमले होने लगे। स्थानीय लोगों ने अपने अधिकारों की मांग को लेकर ग्वादर में एक आंदोलन शुरू कर दिया था। क्यों चीन से नहीं मदद की उम्मीदें देश के विशेषज्ञ ऐसा नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि कुल कर्ज का केवल 25 फीसदी ही चीन पर बकाया है और खुद चीन ने भी कभी इस मसले को नहीं उठाया है। दूसरी ओर पाकिस्तान की आंतरिक राजनीतिक स्थिति भी बदतर होती जा रही है। चीनी कंपनियों से जुड़े भ्रष्टाचार के आरोप और भुगतान संकट, ऐसे सवाल हैं जिसने दोनों देशों के बीच रिश्तों को बिगाड़ दिया है। सीपीईसी के कई प्रोजेक्ट्स ठप पड़े हैं और पाकिस्तान अपना वजूद हर दिन खोता जा रहा है। वहीं यह भी अजीब है कि पाकिस्तान मदद के लिए चीन नहीं बल्कि पश्चिम की तरफ देख रहा है। पाकिस्तान के लिए जरूरी सीपीईसी पाकिस्तान के विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन अगर चाहे तो अकेले दम पर पाकिस्तान को इस मुसीबत से बाहर निकाल सकता है। शुरुआत में कुछ संकेत ऐसे मिले थे कि चीन विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने के लिए पाकिस्तान को करीब 15 अरब डॉलर देने पर विचार कर रहा है। अब वर्तमान राजनीतिक हालातों के चलते चीन स्थिति के साफ होने का इंतजार कर रहा है। देश में चुनाव होने वाले हैं और चीन की नजरें इन चुनावों के नतीजों पर लगी हुई हैं। अब समय आ गया है जब पाकिस्तान को सीपीईसी को छोड़ने की अपनी मूर्खता के भारी नतीजों पर चिंता करनी चाहिए।
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